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जीवन एक नाटक

पन्नालाल पटेल

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :238
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5716
आईएसबीएन :81-237-2738-0

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अकाल जीवन की भयानकता से साक्षात्कार प्रस्तुत उपन्यास में अच्छे ढंग से वर्णित ह....

Jeevan Ek Natak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

पन्नालाल पटेल आजन्म कथाकार हैं, यह तो उनकी रचनाएँ प्रकट होने पर साहित्य पढ़ने वालों ने ही देखा था। इसी कारण वत्सल मेघाणी भाई (स्व. झवेरचंद मेघाणी) का स्नेहाभिषेक उनके उपन्यास ‘वळामणां’ (बिदाई) और ‘मळेवा जीव’ (प्रेमीजन) पर हुआ। और बाद में प्रकाशित उनकी छोटी-बड़ी कथाओं का सभी ने सम्मान किया।

पर ‘मानवीनी भवाई’ उन सबसे अलग है। कहानी की कला ‘मळेवा जीव’ और ‘सुख-दुख-ना साथी’ (सुख-दुख के साथी) में है ही। केवल कसब की दृष्टि से देखें तो ‘मळेवा जीव’ में जो नखशिख सौष्ठव है वह ‘मानवीनी भवाई’ में यत्र-तत्र परिमार्जन के अभाव के कारण अधूरा है। पर कला की सार्थकता—कला का पुरुषार्थ अधिक शोभा देता है, उसके वास्तु माध्यम के द्वारा। वेदना तो प्रत्येक प्राणी में समान अनुकम्पा जगाने वाली होती है-पर उस अनुकम्पा का कला-माध्यम व्यक्ति ही बना रहे तो कला टिकती अवश्य है पर भव्य नहीं बन पाती। प्लेटो ने सौन्दर्य की परिभाषा देते हुए कहा है कि Beauty is the grandeur of good ! उसी तरह कला तभी भव्यता प्राप्त करती है जब वह व्यक्ति के छोटे सुख-दुख का आधार लेकर सृष्टि में उल्कापात करने वाली तरंगों के बीच अपनी नौका चलाए।

आदि कवि की अनुकम्पा तो जाग उठी थी दो कौंच पक्षियों के वियोग से-पर उस अनुकम्पाजन्य वाणी का विषय बना राम-वनवास; महान कला वैयक्तिक वेदना-वियोग की उपेक्षा नहीं करती, पर उसे ऊपर उठाकर विशाल सृष्टि पर बिछे ताने-बाने में एकरस करके पाठक की अनुकम्पा को कर्मशील बनाकर कहां रोग की जड़ है, कहां प्रहार करने योग्य स्थल है, यह बिना मुखर हुए बता देती है।

आदि पर्व में आते शांतनु, गंगा, शिखंडी या भीष्म के पात्र उनके वैयक्तिक आवेगों के हू-ब-हू चित्रण के लिए ही नहीं हैं। वे तो अनजाने में ही बने हैं माध्यम—कुरुक्षेत्र और जनमेजय के सर्पसत्र के।

‘ले मिज़राब्ल’ का ज़ा वालज़ा व्यक्ति ही नहीं, समग्र समाज का वेदना-प्रतीक है, अन्यथा यह कृति एक रत्नकनी-सी कहानी की तरह दूसरे प्रकरण में ही समाप्त हो गई होती। व्यक्ति के रूप में ही उसकी कथा लिखनी होती तो उसका जेल का दुख और बिशप द्वारा किया गया उसका हृदय-परिवर्तन-इन दो बातों से कहानी पूरी हो जाती। पर केवल ज़ां वालज़ां और बिशप ही जगत नहीं, समाज भी है। ज़ां वालज़ां जैसों को सुधारने और बिगाड़ने के लिए सभी प्रयत्नशील हैं। तभी तो ह्यूगो को थिनारडियर जैसे निष्ठुर धूर्त, वनस्पति की दुनीया में मशगूल मोबुफ, आदर्शवादी एन्जोलर्स, प्रेमी मेरियस और शासनबद्ध कानून के सेवक शिकारी कुत्ते-सा जेवर्ट जैसे पात्रों को लाना पड़ा है और कथा-पट जेल से शुरू करके, गिरजाघर से गुजरते हुए पेरिस के क्रांतिकारियों की बेरीकेड्झ (ओट) तक फैलाना पड़ा है, क्योंकि ज़ां वालज़ां केवल व्यक्ति नहीं। थेनारडियर की वह भूखी, पगली, पक्की और उसके मरने के बाद मरियम उसे चुंबन करे, ऐसी इच्छा करने वाली लड़की भी ज़ां वालज़ां का ही एक रूप है। इसी प्रकार गावरोश उसका दूसरा रूप है। क्रांतिकारी उसका तीसरा रूप है। ह्यूगो को एक सृष्टि की कथा लिखनी है। उसकी प्रबल कला को इसके सिवा चरितार्थता मिलना संभव नहीं। प्रत्येक महान कला अपने पूर्ण रूप को तभी प्राप्त करती है जब वह व्यक्ति की कथा को सृष्टि के सुख-दुख का माध्यम बनाती है।

कवि ठाकुर के उपन्यास ‘नौका डूबी’ की ‘घरे बाहिरे’ से तुलना करने पर यह बात स्पष्ट होगी। ‘नौका डूबी’ भी कलाकृति है, पर ‘घरे बाहिरे’ में जिस गर्मी और प्रकाश का सामांजस्य स्थापित हुआ है, उसका ‘नौका डूबी में परिपूर्ण अनुभव नहीं होता क्योंकि ‘नौका डूबी’ के रमेश और कमला की उलझन सकुचाने वाली होने पर भी उन चरित्रों के साथ पैदा होती है और उन्हीं के साथ समाप्त होती है; ‘घरे बाहिरे’ के निखिल, संदीप या विमल के दुखों का लीलास्थान एक साथ व्यष्टि और समष्टि दोनों हैं।

श्री पन्नालाल ने ‘मानवीनी भवाई’ के रुप में काल प्रधान उपन्यास लिखकर नई दिशा का उद्धाटन किया है। इसका ऐतिहासिक महत्व है। कालू की बात उसकी अपनी बात नहीं, पर गुजरात की सरहद पर चार दशक पूर्व बसने वाले–नए और पुराने जमाने के संधिकल तक पहुँचकर करवट लेते-गावों की बात है। कालू तो एक निमित्त है। निमित्त उपादान होने से सुख-दुख कम नहीं होते पर भूमिका और गतिकेन्द्र बदल जाते हैं।

‘मानवीनी भवाई’ ग्रामीण समाज की कहानी है और गति जगाने वाला बल है काल। मनो सारी कथा का मुख्य पात्र ही काल है और अन्य सभी तो उसके संकेत से तो खिंचते हैं। समग्र समाज को भूमिका के रूप में लेकर उस पर कालू को ही पात्र बनाकर अंतिम पच्चीस वर्षों में ठीक-ठीक सफल कही जा सके, ऐसी कथा लिखने के लिए पन्नालाल हमारे यहाँ (गुजराती साहित्य में) बहुतों के पथप्रदर्शक बनेंगे।

यंत्रोद्योग-प्रधान समाज शुरू होने के बाद मनुष्य के सुख-दुख का मूल्य बहुधा परिवर्तित हुआ है। वैयक्तिक कर्मों के परिणाम स्वरूप उसे मिलने वाले सुख-दुख की अपेक्षा सामाजिक (परिवारिक नहीं) कर्मों के परिणाम स्वरूप उसे प्राप्त होते सुख-दुख का प्रमाण बढ़ गया है। इसे ही विख्यात समाजचिंतक ग्रहास वॉलेस ने ‘हमारी सामाजिक विरासत’ नाम दिया और अनुवांशिक विरासत की अपेक्षा यह विरासत ही हमारे सुख-दुख के निर्माण में सहायक होगी, ऐसा पृथक्करण किया है। यह स्थापना राजनीति, अर्थनीति और कुछ हद तक अन्य क्षेत्रों में पूर्ण रूप से मान्य होने पर भी साहित्य में इसका सफल प्रवेश नहीं हुआ था। व्यक्ति ही सब कुछ है, ऐसा मानकर ही साहित्य–सृष्टि की रचना होती रही है। मानो दुनिया फेरग्रीव भूगोल के नियमानुसार चलती हो और शालाओं में पढ़ाया जाता हो टॉलमी का भूगोल-वैसा ही अनगढ़ यह दृश्य है। पात्रों का भी पात्र, जिसे हम सूत्रधार कहते हैं, वह तो अब है सामाजिक परिबल। ये परिबल भी यकायक उत्पन्न नहीं होते। उनका स्वीकार, घटनाओं के घटित होने में उनका हाथ, स्पष्ट संकेत से दिखाने का पुरुषार्थ ‘मानवीनी भवाई’ ने किया है। यही इसका सत्कार करने के लिए सबसे बड़ा कारण है।

कालू निर्भीक और सच्चा युवक है। कथाकार के कथनानुसार इस निर्भीकता और सच्चाई का एक मूल है वैयक्तिक झगड़ों को टालने वाले, दुख को पी जाने वाले टेकी पिता और दृढ़ संकल्प माता में। आरंभिक छह प्रकरणों में अंकित वाला पटेल का रेखाचित्र कहानी का ढाँचा निर्णीत कर देता है। सदियों पुराने गाँव जिसके कारण टिके हुए हैं, वह झगड़ा टालने की वृत्ति है और दूसरी ओर है दुख से पराजित न होने की, पलायन न करने की, जमीन से सटे किसान की जोंक-वृत्ति। क्लेश के, ईर्ष्या के अवतार-सी अपने भाई की कर्कशा पत्नी माली के, काली के जन्म प्रसंग पर रोंगटे जला दें, ऐसे ताने सुनकर, उसे जवाब देने के लिए उत्सुक अपनी पत्नी से वह कहता है, ‘‘मत बोल मत बोल। भगवान ने खुशी से दिया होगा तो उसका कुछ नहीं बिगड़ सकेगा। जा, तू घर चली जा। कज़िये से बढ़कर दुनिया में कोई शाप नहीं।’’

और दूसरी ओर इस निरुपद्रवी वाला पटेल में दुख को पी जाने की साझेदारी है और सो भी कड़ुआ मुँह करके नहीं-आधी वीरता और आधी भक्ति के सहारे। साधु की लंगोटी की कहानी कहते हुए जब साधु संसार में फंसने के बाद भागा, तब जो कुछ वह कहता है मानो कालू के जीवन का सार सर्वस्व है, ‘‘तुझे मालूम है ? साधु तो होगा बनिया-ब्राह्मण-इसके सिवा किसी और जात का होता तो भागता नहीं ! पर किसान की जात को तो दुख के दिन बिताना अच्छी तरह आता है अगर साधु की तरह वह भी भाग जाए तो धरती का अंत ही आ जाए ? पर भागे क्यों पगले ? साधु के जाते ही उसने समझ लिया के इस तरह खाट पर पड़े रहने से गुजारा नहीं होगा, और हो गई खड़ी। कसे हुए कछौटे पर धोती से कमर बाँधी और कट्-कट् करती चढ़ गई डंगूर पर तुम सबको दिखे न दिखे पर वह चुन रही गोंद।’’ तीन साल के कालू को फूल की तरह उठा कर कंधे पर बिठाते हुए कहा, ‘‘ऐसी है संसार की बात ! बेचारे साधु की क्या ताकत कि दुख के दिन मेहनत से बिता सके ? यह तो भगवान से भला सरजा किसान कि मुझे इतने-अरे, हम सभी को दुख है पर देखना तुम, एक के बाद एक
को खुशी से जी लेंगे। क्यों, बेटे ?’’

यह दुख को जी लेने का-पीसकर खा जाने का संकल्प–बल इन साहूकारों का आधा मजाक, आधी दया, इन मेहनत से मर जाते सच्चे लोगों का सच्चा गौरव, कहानी की महत्ता का सूचक है। वाला पटेल अपनी बात नहीं करता—वह तो अस्थिरता, लूटपाट, दैवी आपत्तियों, साहूकार, दरबार और अफीम-इन सभी से नोचे जाते, लुटते, निचोड़े जाते, फिर भी जीने की किसी अद्भुत ताकत के सहारे बार-बार गीतों से गुँजित हो उठते गाँवों के मेहनती समाज की महत्ता गाता है, नाज़ुक कल्पना या क्षणिक भावावेश के सहारे खड़ी की हुई महिमा नहीं, इतिहास की आग्नेय शान पर चढ़कर सिद्ध होने वाली महिमा का बखान करता है और दूसरी ओर यही शब्द हैं कालू के लिए, पिता की ओर से प्राप्त, जीवन मंत्र।

चार साल के कालू के कान में यह मंत्र फूँककर वाला पटेल उसे अपने भाई-कर्कशा पत्नी के कारण हीन हो चुके–परमा को सुपुर्द करके विदा होता है और उसके साथ ही बिदा होता है उस छोटे गाँव में बसता एक सात्विक तत्व।

जब तक यह तत्व था, तब तक माली की दुष्टता सफल नहीं हो सकती थी। राजू से काली की मंगनी वह होने नहीं देना चाहती थी और उसके लिए उसने उछलकूद करने में और सिर पटकने में कोई कसर छोड़ी न थी-पर गांव की ‘डाइन’ फूली माँ का वाला के प्रति जो सद्भाव था उसके कारण वह रोक नहीं पाती। वाला की बिदाई के बाद ही वह रिश्ता तुड़वा देती है। बचपन में साथ खेलने वाले, घर बनाकर खेलने वाले, सात ताली के दाव में साथ खेलने वाले, खेत के सीवान में साथ हँसने वाले उन दोनों को अलग करती है-और इस पर अभी मानो विधाता को संतोष न हुआ हो, इस लिए वह उन्हें चाची सास और दामाद के रुप में रख देता है। जो दूर सागर पार जाता है, उससे इतनी जलन नहीं होती; वह तो अपनी ससुराल में ही-उस पार के घर में और अपने घर में आती है, नाम से भली, पर काम में ‘कुंदा’ ! तुर्रा यह कि कालू माँ मरते वक्त उससे आखिरी वचन मांग लेती है कि दूसरी पत्नी नहीं करूँगा। कालू मानो सूली पर सो रहा हो-नहीं उतर पाता या नहीं आता झट अंतकाल भी। ससुराल है सो बार-बार कल्पना के घोड़े दौड़ाता है, ‘‘दुनिया चाहे जो कुछ कर ले-एक बार कपड़े तो पहना दूँ, छींटे तो छींटे पर मना तो लेने दे।’’ वह भूल जाता है कि राजू से उसने खुद ही सिखावन दी है कि ‘‘सम्पन्न घर और खूबसूरत वर हो तो सारी दुनिया घर बसाकर रहती है पर गरीब घर और रंक पति होने पर भी घर बसाकर रहने में बड़ाई है।’’

पर राजू अलग लहू से बनी है। उसे ऐसी सिखावन की तनिक भी आवश्यकता नहीं। हमारे साहित्य में शरतचंद्र के साहित्य ने जो नारी गरिमा खड़ी की है, उसी की यह पैदाइश है। ‘‘उसने तो मानो वह यौवनमस्त उच्छृंखलता, ठिठोली, मस्ती, तूफान-सब कुछ मायके से ससुराल आते–आते पाँच कोस की राह में मानो बिखेर दिया।’’
एक बार बीमार पति के लिए अपनी नथ बेचने के लिए राजू को तैयार होती देख कालू पूछता है, ‘‘तू रीस न करे तो एक बात पूछूँ, राजू! क्या सचमुच दयालजी को दुरुस्त करना, जिलाना चाहती है ?’’

राजू के मुख पर दुख का बादल उतर आया। दर्द भरे हास्य के साथ बोली, ‘‘आप भी मुझसे ऐसा पूछते हैं ? दुनिया मानती है कि यह आदमी मर जाए उसकी राह देखती राजू बैठी है, पर क्यों ?’’ किस सुख के लिए ? आप सब समझते हैं कि राजू को दुख है। पर क्या दुख है ? मां-बाप से मेरे जेठ जेठानी हैं, बच्चे भी मेरे प्यार के भूखे हैं और आदमी भी।’’ उसने हँसने की कोशिश की, ‘‘आप–सा छैला-छबीला होता तो दिन में दस-बीस गालियाँ देता जबकि यह तो आज्ञाकारी कदम-कदम पर चिंता करने वाला।
क्या दुख है मुझे ?’’
कालू तो राजू की ओर देखता ही रह गया। आदर भरी नजर करते हुए कहा, ‘‘तुझ-सी हमारी बिरादरी में तो बहुत कम औरतें होंगी राजू, मैं तो एक भी नहीं देखता।’’
लेखक की बात सही है। राजू-सी उस बिरादरी में एक भी नहीं हो सकती। राजू तो है शरतचंद्र की राज-लक्ष्मी, भैरवी, अन्नदा और पारो और वैसे कई महिमाशाली नारी पात्रों के सेवन के बाद हमारे सर्जकों द्वारा ग्राम भूमि में बोए गए बीज का पौधा। इस पौधे की बराबरी करने वाला उस ग्राम प्रदेश में मिल न पाए तो उसमें कालू का दोष नहीं।
बुड्ढा वाला भी ग्राम जनता का है। बुड्ढी माली भी उसकी घृणाजनक ईर्ष्या के बावजूद गाँव की है। डाइन फूली, कासम, वेचात गाँव के हैं। खुद कालू भी। केवल वह है उस युग के संधिकाल की पैदाइश। पर राजू का बीज देहाती नहीं है, उसे खाद-परवरिश और आबोहवा भले ही गाँवों से मिली हो।

कोई ऐसा न मान ले कि मैं श्री पन्नालाल पटेल की सर्ग-शक्ति में क्षति देख रहा हूँ। श्री पन्नालाल की सर्ग-शक्ति पहचान या प्रशंसा का विषय नहीं। वह तो स्वतः सिद्ध है। रवींद्र और शरतचंद्र के युगव्याप्त प्रभाव से कोई संवेदनशील सर्जक बच नहीं पाएगा, यह तो निर्विवाद बात है। हर बार देखना तो यह है कि इस प्रभाव को किस रासायनिक विधि से लेखक ने अपने कथा-प्रदेश में उतारा है ? वह प्रभाव अनुकरण में परिणत हुआ है या आत्मसात हो गया है ?
पन्नालाल ने ‘मळेला जीव’ में और प्रस्तुत कृति में इस ध्वनि को आत्मसात किया है, ऐसा पाठक कह देगा। जीवी और राजू जो कुछ बोलती हैं, निर्णय लेती हैं, आस-पास की परिस्थिति देखते हुए अपने ढंग से करती हैं। पहले से ऐसा करने के लिए उन्होंने सोचा नहीं होता, वे तो अन्य दिशा में जाने के लिए तड़पती हैं पर नई परिस्थिति को सहकर उसकी आदी होती हैं, ऐसा समझकर कि बलवान और निर्भय मनुष्यों को यही शोभा देता है।


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